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भाजपा भले ही हार जाएं ... लेकिन मोदीजी जरूर जीतेंगे ?BJP may lose... but Modiji will definitely win?

भाजपा भले ही हार जाएं ... लेकिन मोदीजी जरूर जीतेंगे ?



प्रणव बजाज


140 करोड लोगों की धड़कन सिर्फ मोदी के लिए धड़कती है भाजपा के लिए नहीं यह एक कड़वी हकीकत है !

लोकसभा चुनाव को लेकर भारत का मध्य वर्ग इस बार अधिक उदासीन दिख रहा है। लोग मान कर चल रहे हैं कि चुनाव बाद बड़े बदलाव की कोई उम्मीद नहीं है। चुनाव के केंद्र में फिलहाल मोदी ही हैं। मोदी जी ने खुद ही 'अबकी बार- चार सौ पार' का जो नारा दिया है, पूरे देश में यह बहस छिड़ी है कि क्या वह इस चार सौ पार के जादुई आंकड़े को छू सकते है ।

इसका स्पष्ट उत्तर तो मतों की गिनती के बाद ही मिलेगा, पर इस समय देश के सबसे बड़े राज्य (उत्तर प्रदेश) की जनता में किसी भी राजनीतिक दल से ऊपर मोदी और भाजपा के लिए समर्थन की लहर है। इसके बावजूद दिल्ली में बैठे भाजपा के बड़े नेता आश्वस्त नहीं है, यही कारण है कि एक-एक सीट के लिए गुणा-गणित किया जा रहा है।

अब यह स्थापित हो गया है कि केन्द्र की सत्ता का रास्ता यूपी से ही होकर गुजरता है। वर्ष 2014 और 2019 में भाजपा को केंद्र में स्थापित करने में उत्तर प्रदेश का योगदान सर्वाधिक रहा है। दोनों चुनाव में उत्तर प्रदेश ने भाजपा और उसके सहयोगी दलों को क्रमशः 73 और 64 सांसद चुनकर दिए। इसी संख्या बल के आधार पर प्रधानमंत्री मोदी केंद्र की सत्ता पर काबिज हो सके। इस बार तो भाजपा ने 80 की 80 सीट जीतने का लक्ष्य रख दिया है। दावेदारों के दावे अपनी जगह हैं लेकिन 18वीं लोकसभा चुनाव की रंगत 2014 और 2019 जैसी नहीं है। 2019 के लोकसभा चुनाव में विभाजित विपक्ष और मोदी की लोकप्रियता के चरम पर भी भाजपा बहुमत के लिए जरूरी संख्या से मात्र 31 सीट ज्यादा ही जीत पाई, तो सवाल है कि 2024 में 370 या 400 का लक्ष्य कैसे मुमकिन होगा?


लेकिन लगे हाथों एक सच्चाई यह भी है कि विपक्षी दल भी 2019 की तुलना में आज अधिक हताशा की स्थिति में है। भाजपा अपने रणनीतिक सहयोगियों के साथ मैदान में उतर चुकी है वहीं विपक्षी दल अभी भी सीटों के बंटवारे में लगे पड़े हैं। मूल प्रश्न यह है कि जिस राजनीतिक नैतिकता की जरूरत विपक्ष के पास होनी चाहिए वह उसके पास क्यों नहीं है?


आजादी के बाद हमारे देश में समानता, भाईचारा, धर्मनिरपेक्षता आदि के सवाल पर कोई बहस नहीं थी। कांग्रेस पार्टी पर धर्मनिरपेक्षता की आड़ में समुदाय विशेष का तुष्टिकरण करने का आरोप लगाने के बावजूद जनसंघ और स्वतंत्र पार्टी अधिक से अधिक वास्तविक धर्मनिरपेक्षता की वकालत करते रहे। मुसलमानों ने भी मुख्य धारा का समर्थन किया। 1971 में समाजवाद के साथ खड़े होकर इंदिरा का समर्थन किया तो उनकी तानाशाही के विरोध में 1977 में उन्हें अर्श से फर्श पर पटक दिया। यह प्रवृति 1989 के चुनाव तक बनी रही। 1990 के बाद स्थितियां बदली और लगातार बदलती चली गईं।


आज अपने राजनीतिक गठबंधन एनडीए के साथ भाजपा 335 सीटों के साथ सत्ता में है। प्रधानमंत्री ने एनडीए के लिए 400 पार का लक्ष्य घोषित करके अपनी पार्टी के लोगों को इस लक्ष्य को पूरा करने में लगा दिया है। 400 के पार जाने के लिए पार्टी को कम से कम 66 सीटें और चाहिए। सवाल यह है कि एनडीए के लिए ये अतिरिक्त सीटें कहां से आयेंगी?


बीजेपी बिहार, उत्तर प्रदेश, झारखंड, छत्तीसगढ़, उत्तराखंड, गुजरात, राजस्थान, हरियाणा, दिल्ली और यहां तक कि असम में अधिकतम पर स्थापित है। हालिया उतार चढ़ाव को देखते हुए आशंका व्यक्त की जा रही है कि उत्तर भारत के इन राज्यों में पार्टी की कुछ सीटें घट सकती हैं। यूपी में ही गाजीपुर, बलिया, घोसी, आजमगढ़ की तरह कई अन्य लोकसभा क्षेत्रों में उल्टी हवा बह रही है।

टिकट कटने से नाराज नेताओं का समुदाय भी विरोध का झंडा बुलंद कर रहा है। उत्तर प्रदेश में सबसे पहले उम्मीदवारों की घोषणा किए जाने के बावजूद अभी भी 15 से 20 सीटों का पेच फंसा हुआ है। जिस तरह कांग्रेस पार्टी अमेठी सीट पर प्रत्याशी की घोषणा वायनाड में मतदान संपन्न होने के बाद करना चाहती है, भाजपा भी कैसरगंज सीट पर उम्मीदवार की घोषणा राजस्थान के मतदान के बाद करने के मूड में है।

लेकिन भाजपा के मुकाबले में विपक्षी दल 2019 से भी अधिक हताशा की स्थिति में है। परंतु यहां सवाल यह भी उठता है कि क्या देश में आज भी मोदी के प्रति वही दीवानगी है, जो 2014 या 2019 में थी? इस सवाल का कारण केवल विफलता ही नहीं हो सकती, क्योंकि कई बार जनता एक ही व्यक्ति और शासन को देखते-देखते ऊब महसूस करने लगती है। यह भी एक बड़ा कारण हो सकता है। इसके बावजूद अगर मोदी या भाजपा की स्थिति बाकी दलों से मजबूत दिख रही है तो उसका कारण यह हो सकता है कि मोदी नहीं तो और कौन?

राजनीतिक विश्लेषकों का मानना है कि अगर भाजपा को शिकस्त देनी है तो विपक्षी दलों को भी जरूरत के मुताबिक ढलना होगा। भाजपा ने अपने को जरूरत के मुताबिक बदला है और पार्टी के आंतरिक लोकतंत्र को भी बहुत हद तक बचा कर रखा है। हालांकि भाजपा में भी नेता पुत्रों को टिकट देकर पुरस्कृत किया जाता रहा है, लेकिन कोई यह नहीं कह सकता की पार्टी परिवारवाद की गिरफ्त में है। दूसरी ओर विपक्षी दल आंतरिक बदलाव से हमेशा भागते रहे हैं। कांग्रेस, राजद, सपा जैसी पार्टियां अभी भी पुरानी हो चुकी विचारधाराओं पर ही केंद्रित हैं।

जनसंघ ने कई बार अपने को बदला। 1977 में जेपी के निर्देश पर जनता पार्टी में अपना विलय कर लिया। 3 साल बाद 80 में वहां के खट्टे मीठे अनुभव लेकर बाहर आने के बाद भारतीय जनता पार्टी के रूप में स्वयं को संगठित किया। अटल बिहारी वाजपेयी ने गांधी और समाजवाद को अपने आर्थिक एजेंडा में शामिल किया। बाद में लाल कृष्ण आडवाणी ने पार्टी को राम मंदिर के आंदोलन में झोंक दिया। वर्ष 2014 के बाद नरेंद्र मोदी के नेतृत्व में भाजपा ने पिछड़े वर्गों के लिए राजनीतिक उदारता दिखाई और बिहार के साथ-साद उत्तर प्रदेश में बड़ी जीत दर्ज की।

जबकि छोटे छोटे दलों में बंटा विपक्ष अपने बड़े बड़े स्वार्थों से ही ऊपर नहीं उठ पा रहा है। ऐसे में 2024 में भाजपा अपने सबसे बड़े लक्ष्य को पूरा करने में भले ही पीछे रह जाए लेकिन एक बार फिर सबसे बड़ी विजेता पार्टी बनने से उसे कोई नहीं रोक सकता। इसके जो प्रमुख कारण हो सकते हैं उसमें ब्रांड मोदी की विश्वसनीयता, केन्द्र सरकार के खिलाफ जनता में नाराजगी का अभाव और बिखरा विपक्ष अपनी महती भूमिका निभाएगा।

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